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International Journal of Contemporary Research in Multidisciplinary
ISSN: 2583-7397
Open Access • Peer Reviewed
Impact Factor: 5.67

International Journal of Contemporary Research In Multidisciplinary, 2025;4(1):01-05

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में योग से आत्म-परिवर्तन द्वारा सामाजिक परिवर्तन

Author Name: भावना कच्छवाहा;  

1. दर्शनशास्त्र विभाग, जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर, राजस्थान, भारत

Paper Type: review paper
Article Information
Paper Received on: 2024-12-12
Paper Accepted on: 2025-02-19
Paper Published on: 2025-03-03
Abstract:


वर्तमान भौतिकवादी युग में मनुष्य अपने मूल स्वरूप को भूल गया है, जिसके परिणामस्वरूप वह अशांत और दुखी है। योग इन दुखों से मुक्ति और परम शांति व आनंद प्राप्त करने का एकमात्र उपाय है। योग जीवन जीने की कला और एक साधना विज्ञान है जो जन्म-जन्मांतर के संस्कारों को क्षीण कर व्यक्ति को आत्म-साक्षात्कार और मोक्ष की ओर ले जाता है। योग का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है, जिसमें चारित्रिक, शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य और अंततः मोक्ष की प्राप्ति शामिल है। अष्टांग योग व्यक्ति के समग्र विकास का मार्ग प्रशस्त करता है, जिससे राष्ट्र और संपूर्ण विश्व का समग्र विकास संभव है। आत्म-परिवर्तन सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की कुंजी है, और योग इस स्व-परिवर्तन के लिए एक उत्कृष्ट तकनीक है। योग बुद्धि का विकास करता है, यथार्थ सत्ता की अनुभूति कराता है, और जीवन को आशावादी, प्रगतिशील और सार्थक बनाता है। यह आंतरिक दिव्य शक्तियों को जागृत कर मन, वाणी और कर्मों को संतुलित करता है, तथा व्यक्ति को अहंकार से निःस्वार्थता और अज्ञानता से ज्ञान की ओर ले जाता है। मानसिक रोगों का समाधान केवल आध्यात्मिक विद्या को क्रियात्मक रूप देने से ही संभव है, और यह योग के माध्यम से ही संभव है।

Keywords:

परम शांति, परमानंद, सर्वांगीण विकास, चारित्रिक स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य, अष्टांग योग, समग्र विकास।

Introduction:

आज के इस अत्यधिक गतिशील और भौतिकतावादी युग में, जहाँ प्रौद्योगिकी और उपभोक्तावाद का बोलबाला है, मनुष्य ने स्वयं को ही इस जटिल भौतिक जगत का निर्माता बना लिया है। हालाँकि, इस अनवरत दौड़ में वह अपने मूल स्वरूप, अपनी आंतरिक शांति और अपने वास्तविक आनंद को विस्मृत कर बैठा है । इस आत्म-विस्मृति का भयावह परिणाम यह हुआ है कि वह निरंतर अशांति, तनाव और दुख के भंवर में फंसा हुआ है । जीवन की इस आपाधापी में मनुष्य अक्सर स्वयं को असहाय और दिशाहीन पाता है, क्योंकि वह अपने भीतर के खालीपन को बाहरी वस्तुओं और उपलब्धियों से भरने का प्रयास करता रहता है, जो अंततः उसे केवल क्षणिक संतुष्टि ही प्रदान कर पाते हैं।1

How to Cite this Article:

भावना कच्छवाहा. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में योग से आत्म-परिवर्तन द्वारा सामाजिक परिवर्तन. International Journal of Contemporary Research in Multidisciplinary. 2025: 4(1):01-05


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