IJ
IJCRM
International Journal of Contemporary Research in Multidisciplinary
ISSN: 2583-7397
Open Access • Peer Reviewed
Impact Factor: 5.67

International Journal of Contemporary Research In Multidisciplinary, 2025;4(2):433-439

भारत में शिक्षा सुधारों की ऐतिहासिक यात्रा

Author Name: कविता कुमारी;   डॉ. रेणु गुप्ता;  

1. शोधार्थी,वाई.बी.एन यूनिवर्सिटी, रांची, झारखण्ड, भारत

2. शोध निर्देशिका, सहायक प्राध्यापक, वाई.बी.एन यूनिवर्सिटी, रांची, झारखण्ड, भारत

Abstract

मानव समाज की प्रगति और आर्थिक विकास का आधार केवल प्राकृतिक संसाधनों या भौतिक पूँजी तक सीमित नहीं है, बल्कि सबसे निर्णायक कारक मानव स्वयं है। उत्पादन की प्रक्रिया में भूमि, श्रम, पूँजी और प्रौद्योगिकी की भूमिका तो महत्त्वपूर्ण है ही, किंतु इन सबको संगठित और प्रभावी ढंग से प्रयोग करने की क्षमता केवल मनुष्य में निहित है। इसी विचार ने आधुनिक आर्थिक चिंतन में मानव पूँजी सिद्धांत को जन्म दिया। इस सिद्धांत का प्रतिपादन बीसवीं शताब्दी के मध्य में अर्थशास्त्रियों थियोडोर डब्ल्यू. शुल्ट्ज और गैरी बेकर ने किया, जिनका मानना था कि शिक्षा, स्वास्थ्य, प्रशिक्षण, प्रवास और सामाजिक पूँजी में किया गया व्यय वस्तुतः निवेश है जो भविष्य में अधिक उत्पादन और उच्चतर आय के रूप में प्रतिफल देता है। परंपरागत दृष्टिकोण में शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च को उपभोग माना जाता था, किंतु इस सिद्धांत ने स्पष्ट किया कि यह एक दीर्घकालिक निवेश है, जिसका प्रतिफल न केवल व्यक्ति बल्कि समूचे समाज को प्राप्त होता है।

भारत जैसे विकासशील देश में मानव पूँजी सिद्धांत का महत्त्व और भी अधिक है, क्योंकि यहाँ की जनसंख्या विशाल है और यदि इस जनसंख्या को उचित शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल उपलब्ध कराया जाए तो यह राष्ट्र की सबसे बड़ी संपत्ति बन सकती है। स्वतंत्रता के समय भारत निर्धन और पिछड़ा देश था। उस समय की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित थी और उद्योग व सेवा क्षेत्र नगण्य थे। अशिक्षा, कुपोषण, बीमारियाँ और सामाजिक विषमताएँ इतनी गहरी थीं कि आर्थिक विकास की गति बहुत धीमी थी। ऐसे में यह स्पष्ट हो गया कि केवल भौतिक पूँजी और संसाधनों के सहारे विकास संभव नहीं है, बल्कि इसके लिए मानव संसाधन को विकसित करना आवश्यक है। यही सोच स्वतंत्र भारत की नीतियों में परिलक्षित हुई और शिक्षा, स्वास्थ्य तथा सामाजिक सुधारों को योजनाओं का केंद्रीय तत्व बनाया गया।

भारतीय अनुभव यह दर्शाता है कि शिक्षा ने आर्थिक विकास में सबसे प्रमुख योगदान दिया है। पंचवर्षीय योजनाओं के आरंभ से ही साक्षरता बढ़ाने और प्राथमिक शिक्षा को सार्वभौमिक बनाने पर बल दिया गया। धीरे-धीरे विश्वविद्यालयों, इंजीनियरिंग कॉलेजों, चिकित्सा महाविद्यालयों और प्रबंधन संस्थानों की स्थापना हुई। आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों ने ऐसी पीढ़ी तैयार की जिसने वैश्वीकरण और सूचना क्रांति के युग में भारत को अग्रणी बनाया। यदि मानव पूँजी सिद्धांत के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो शिक्षा पर हुआ यह निवेश भारत के आईटी और सेवा क्षेत्र की सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज लाखों भारतीय युवा विदेशों में भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा रहे हैं और विदेशी मुद्रा के रूप में राष्ट्र को समृद्ध बना रहे हैं।

महिला शिक्षा और सशक्तिकरण भी भारतीय अनुभव का महत्वपूर्ण पहलू है। लंबे समय तक महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखा गया, जिससे उनकी आर्थिक भागीदारी सीमित रही। किंतु जैसे-जैसे महिला शिक्षा का प्रसार हुआ, वैसे-वैसे उनका योगदान भी बढ़ा। आज महिलाएँ केवल शिक्षण और नर्सिंग तक सीमित नहीं हैं, बल्कि बैंकिंग, आईटी, विज्ञान, राजनीति और उद्यमिता के क्षेत्र में भी अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। यह परिवर्तन मानव पूँजी सिद्धांत की पुष्टि करता है कि जब आधी आबादी को शिक्षा और कौशल का अवसर मिलता है तो आर्थिक प्रगति की गति कई गुना बढ़ जाती है।

Keywords

शिक्षा, विकास, सुधार, इतिहास, नीति, परंपरा, गुरुकुल, औपनिवेशिक काल, आधुनिकता, मैकाले, वुड का डिस्पैच, विश्वविद्यालय, स्वतंत्रता, आयोग, शिक्षा नीति, नवाचार, परिवर्तन, तकनीकी शिक्षा, सर्वशिक्षा अभियान, साक्षरता, नई शिक्षा नीति 2020, डिजिटल शिक्षा, ज्ञान समाज, गुणवत्ता, समानता, अवसर।