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International Journal of Contemporary Research in Multidisciplinary
ISSN: 2583-7397
Open Access • Peer Reviewed
Impact Factor: 5.67

International Journal of Contemporary Research In Multidisciplinary, 2025;4(4):521-527

समकालीन भारत में राष्ट्रवाद: एक विमर्श

Author Name: सीमा गहलोत;  

1. राजनीति विज्ञान विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर, राजस्थान, भारत

Abstract

राष्ट्रवाद केवल राजनीतिक अवधारणा नहीं, बल्कि सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना का भी प्रतिबिंब है, जो भारत जैसे बहुलतावादी राष्ट्र की जटिलताओं से गहराई से जुड़ा हुआ है। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी, नेहरू, सुभाष, टैगोर, सावरकर और विवेकानंद जैसे विचारकों ने राष्ट्रवाद की विभिन्न व्याख्याएँ प्रस्तुत कीं, जो आज भी प्रासंगिक बनी हुई हैं। यह शोध आलेख समकालीन भारत में राष्ट्रवाद की बहुआयामी, वैचारिक और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में गहन समीक्षा प्रस्तुत करता है। समकालीन दौर में भारतीय राष्ट्रवाद का स्वरूप वैश्वीकरण, तकनीकी संचार, राजनीतिक ध्रुवीकरण और धार्मिक विविधता आदि के कारण परिवर्तित हुआ है। नागरिकता संशोधन अधिनियम (CAA), अनुच्छेद 370 का निष्प्रभावीकरण और अयोध्या विवाद जैसे प्रमुख घटनाक्रम राष्ट्रवाद की नई परिभाषा गढ़ते हैं, जिसमें भारतीय संविधान, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र को चुनौती मिलती है। इस लेख में पश्चिमी विद्वानों (जैसे एंडरसन, हॉब्सबॉम, गेलनर) और भारतीय विचारकों (जैसे पार्थ चटर्जी) के सिद्धांतों के माध्यम से राष्ट्रवाद की विवेचना की गई है। यह आलेख इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि राष्ट्रवाद का समावेशी, लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्य आधारित स्वरूप ही भारत की एकता, विविधता और स्थायित्व को बनाए रख सकता है। अतः भारत में राष्ट्रवाद को सत्ता के उपकरण के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय समरसता और सामाजिक न्याय के संवाहक के रूप में समझना आवश्यक है। प्रस्तुत शोध-पत्र मुख्यतः द्वितीयक स्रोतों पर आधारित है। 

Keywords

समकालीन राष्ट्रवाद, भारत, संविधान, धर्मनिरपेक्षता।